हार हमें स्वीकार नहीं ।।




बीच समन्दर फंसा "प्रीत" 
ना नाविक है ना नौका ।।
स्व निर्वाण का यह 
खेल देखे अनोखा ।।

देख चहुं ओर सागर ही सागर 
चक्षुओं से बहे पाखर ।।
वसुधा पर जाने को तरसे 
नैनों से निरंतर मेघ बरसे ।।

थका है अभी; हारा नहीं है 
अकेला है, कोई सहारा नहीं है ।।
जिजीविषा है हृदय में 
आशाओं से रिक्त नहीं ।।
किनारे पर ना पहुंचे जब तक 
तोड़ेगा तब तक दम नहीं ।।

वरुण उसे डुबाना चाहे,
प्रभाकर भी तपन बढ़ाए ।।
इस जटिलता में भी "प्रीत"
चले मंजिल नैनों में गढ़ाए।।

दम उसका चरम सीमा पर ;
स्वेद से लथपथ देह है ।।
किन्तु हार ना माने वह 
स्वयं में साक्षात देव है ।।

      ......प्रीत.....