फ़लसफ़ा ज़िंदगी का


ज़िंदगी का कुछ
 ऐसा फलसफा बना।।
कोई दुश्मन बना
कोई सहारा बना।।

मजबूरी थी उसकी
के भूखा सो नहीं सकता था।।
इस कारण वो गरीब
मर कर सितारा बना।।
लोग; मन्दिर में पत्थर को दूध पिलाते रहे
ईश्वर(फ़कीर) दहलीज पर बैठा तमाशा बना।।

कुछ तो बात होगी मुहब्बत में
जो रांझा; हीर के लिए ग्वाला बना।।
इश्क़ उसका मुकम्मल ना हुआ
शायद! तभी वह आवारा बना।।

अपने दायरे में सीमित रही नदी
तब जा कर किनारा बना।।
अहंकार में डूबा रहा समन्दर 
इसीलिए उसका पानी खारा बना।।

जो जूठा था; फरेबी था 
सबकी आंखों का तारा बना।।
जिसने हर पल सच बोला
भरी भीड़ में बेचारा बना।।

चीख सुन उसकी
कोई ना आया; 
जो सैकड़ों का हमदर्द बना।।
कठिनाई देख कर उसकी; 
उसका अपना भी अनजान बना।।

अजीब सा समां है आज का
नफरत का सौदागर आबाद रहा
अमन का पैगंबर श्मशान बना।।
खुदा बनना चाहता है वो भी
जो कभी इंसान ना बना।।

ये आज के दौर की बाते हैं
इन्हे बयां करना लाजमी है
 ऐसे ही विचार बयां करने को "प्रिंस" 
कलम उठाकर शायर बना।।



----------